इतिहास के ऐसे महान योद्धा जिनका जन्म एक बार हुआ वीरगति दो बार प्राप्त हुई और दाह संस्कार तीन बार हुआ।
इस भारत भूमि पर कही वीर योद्धाओ ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने धर्म संस्कृति और मातृभूमि पर खुद को न्यौछावार कर दिया , शत शत नमन है वीर योद्धाओ को
इतिहास का ऐसा एकमात्र वीर योद्धा जिसने जन्म एक बार लिया , लेकिन वीरगती दो बार प्राप्त की, आर अंतिम संस्कार तीन बार हुआ,
*कमधज बल्लू यू कहे , सोहे सुणो सिरदार ।
*बैर अमररा बालस्या, मुगला हुने मार।।
* कमधज्जा ईसड़ी करो, रहै सूरज लग नाम।
*मुगला मारज्यो चापड़े, होय श्याम रो काम।।
*अमलज पोधा राठवड, हुआ सकल असवार।
*सीस जका ब्रहमंड आड़े, बल्लू दी हलकार।।
*बल्लू कहे गोपालरौ, सतिया हाथ संदेश।
*पतशाही धड़ मोड कर, आवां सा अमरेस। ।
आज हम एक वीर योद्धा के विषय मे चर्चा करेंगे
मुगल बादशाह शाहजांह के दरबार मे राठौर वीर अमर सिंह एक उसे पद के मनसबदार थे । एक दिन शाहजांह के साले सलावत खान ने भरे दरबार मे अमर सिंह को हिंदू होने पर अपमानित कर दिया..
अमर सिंह के अंदर राजपूती खून था अपना अपमान सहन नहीं कर पाए। सेकड़ो सैनिको और मुगल शाहजांह के सामने भरे दरबार मे अमर सिंह ने समावत खान का सर धड़ से अलग कर दिया।
शाहजांह की साँस थम गई.. और राजपूती शेर के तेवर देख कर सैनिक इधर उधर भागने लगे , अफरा तफरी मच गई....
किसी की हिम्मत नही हुई की अमर सिंह को रोके या कुछ कहे, खुद शाहजांह डर कर जनानखाने मे भाग गया, अमर सिंह निडर होकर अपने हैवली लौट आये।
अमर सिंह के साले का नाम था अर्जुन गौड़ वह बहुत लोबी और नीच स्वभाव का था ,बादशाह ने उसे लालच दिया,
उसने अमर सिंह को बहुत समझाया - बुझाया और बादशाह के महल में ले गया, वहां पर जब अमर सिंह आगरा के गढ़ के छोटे दरवाजे से होकर भीतर जा रहे थे, अर्जुन गौड़ ने पीठ पीछे से वार करके उन्हें मार दिया,
ऐसे हिजड़ों जैसी बहादुरी से उसको मरवाकर शाहजहां बहुत प्रसन्न हुआ ,उसने अमर सिंह की लाश को किले की बुर्ज पर डलवा दिया, धिक्कार है उस बादशाह को जिसने उसकी वीरता की कदर करने की बजाय उसकी लाश इस प्रकार चिल कौवो को खाने के लिए रखा,
अमर सिंह की रानी ने जब यह समाचार सुना तो सती होने का निश्चय किया, लेकिन पति की देह के बिना सती कैसे होते हैं,
रानी ने बचे हुए थोड़े राजपूतों सरदारों से अपने पति की देह लाने को प्रार्थना की ,पर किसी ने हिम्मत नहीं की, और तब अंत में उन्होंने अमर सिंह के परम मित्र बल्लू जी चंपावत की याद आई और उन्होंने बुलवाने को भेजा,
( बल्लू जी चंपावत के विषय में कहा जाता है, कि जिस समय अमर सिंह राठौड़ की हत्या आगरा के दुर्ग में की गई थी, उस समय अमर सिंह राठौड़ बल्लु जी चंपावत के मध्य में गंभीर मतभेद थे, परंतु सच्ची वीरता कभी तुच्छता की और न तो ध्यान देती है ,और नहीं तुच्छता का प्रदर्शन करती है ,वह तो सदा उत्कृष्टता मे ही विचरण करती है ,और उसी में आनंदानुभूती करती है, इसलिए सच्ची वीरता में व्यक्तिगत मतभेद बहुत तुच्छ और नगण्य होते है, लोग ऐसे मत कर दो कर राष्ट्र और समाज के हितों के समक्ष भूल जाने में तनिक भी देरी नहीं करते हैं,)
बल्लू जी अपने प्रिय घोड़े पर सवार होकर पहुंचे जो उनको मेवाड़ के महाराणा बक्सा था , बल्लू सिंह चंपावत को जब ज्ञात हुआ कि अमर सिंह राठौड़ का शव आगरा के दुर्ग में रखा है, और यदि उसे वहाँ से लाया नहीं गया ,तो क्षत्रिय समाज को भारी अपयश का सामना करना पड़ेगा, तब इस महान योद्धा ने अपने प्राणों की चिंता किए बिना अमर सिंह का शव लेकर आने का संकल्प लिया,
उन्होंने रानी साहिबा को कहां मैं जाता हूं ,या तो अमर सिंह जी की देह को लेकर आऊंगा या मेरी लाश पर वही गिरेगी,
वहां राजपूत वीर घोड़े पर सवार हुआ ,और घोड़ा दौड़ाता सीधे बादशाह के महल आगरा में पहुंच गया, महल का फाटक जैसे ही खुला बल्लू जी को अच्छी तरह से देख भी नहीं पाए कि वह घोड़ा दौड़ते हुए वहां चले गए जहां पर वीरवर अमर सिंह की देह रखी हुई थी,
बुर्ज के ऊपर पहुंचते-पहुंचते सैकड़ों मुसलमान सैनिकों ने उन्हें घेर लिया ,
बल्लू जी को अपने मरने जीने की चिंता नहीं थी, उन्होंने मुख में घोड़े की लगाम पकड़ रखी थी ,दोनों हाथों से तलवार चला रहे थे ,उनका पूरा शरीर खून से लथपथ था ,सैकड़ों नहीं हजारों मुसलमान सैनिक उनके पीछे थे, जिनकी लाशे गिरती जा रही थी ,और उन लाशों पर से बल्लु जी आगे बढ़ते जा रहे थे, वह मुर्दों की छाती पर होते बुर्ज पर चढ़ गए, और अमर सिंह की देह उठा कर अपने कंधों पर रख ली ,और एक हाथ से तलवार चलाते हुए घोड़े पर उनकी देह को रखकर आप भी बैठ गए ,और सीधे घोड़ा दौड़ते हुए गढ़ की बुर्ज के ऊपर चढ़ गए ,और घोड़े को नीचे कूदा दिया ,नीचे मुसलमानों की सेना आने से पहले बिजली की भांति अपने घोड़े सहित वहां पहुंच चुके थे, जहाँ कुछ राजपूत सरदार उनके साथी उनको अमर सिंह राठौड़ की देह सौंप दी, और बल्लू जी चंपावत मुसलमानों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए,
अपने पति की देह पाकर वह चिता में खुशी-खुशी बैठ गई,
और बल्लू जी चंपावत का दाह संस्कार यमुना के किनारे पर हुआ ,और उनके घोड़े की याद में वहां पर स्मृति स्थल बनाया गया जो अभी भी मौजूद है,
जैसा इसी आलेख में है कि बल्लू जी के पास जो घोड़ा था ,जो मेवाड़ के महाराणा का भेट किया हुआ था ,तब बल्लू जी ने उनसे वादा किया था कि जब भी आप पर कोई विपत्ति आए तो बल्लू को याद करना मैं हाजिर हो जाऊंगा, उसके कुछ वक्त बाद मेवाड़ पर औरंगजेब ने हमला कर दिया तो महाराणा उनको याद किया और हाथ जोड़कर निवेदन किया की है, बल्लू जी आज मेवाड़ को आपकी जरूरत है तभी जन समुदाय के समक्ष उसी घोड़े पर बल्लू जी दिखे और देबारी की घाटी में मेवाड़ की जीत हुई ,
बल्लू जी उस युद्ध में दूसरी बार काम आ गए, देबारी मे आज भी उनकी छतरी बनी हुई है,
यह दूसरी बार वीरगति को प्राप्त हुए,
यह घटना अमर सिंह राठौड़ के देह को आगरा से लाने के पहले की है,
देश धर्म के दायित्व का निर्वाह करने वाली विभूतियों को अक्सर अपने घर की चिंता नहीं रहती या इसे इस प्रकार कहिए की वे अपने घर की ओर ध्यान नहीं दे पाते, जब ध्यान देते हैं अक्सर किसी बड़े दायित्व के निर्वाह के लिए उन्हें अपना कर्तव्य स्मरण हो आता है,
बल्लू सिंह चंपावत के साथ भी यही हुआ ,
अपने गांव हरसोलाव आकर इस शूरवीर ने देखा कि उनकी पुत्री विवाह योग्य हो गई है, इसीलिए उसने अपनी प्रिय पुत्री का विवाह कर देने का मन बनाया, परंतु उनके पास विवाह के लिए आवश्यक और अपेक्षित धन की कमी थी, तब उस स्वाभिमानी बल्लू सिंह ने एक सेठ के यहां अपने मूंछ का एक बाल गिरवी रखकर उससे अपनी पुत्री के विवाह के लिए अपेक्षित धन प्राप्त किया और पुत्री विवाह के दायित्व से मुक्त हो गया, पुत्री के विवाह के पश्चात सुख पूर्वक जीवन यापन करने लगे थे ,पर विधि का विधान तो कुछ और रचा बना पड़ा था, इसलिए हो सकता है कि विधि के विधान ने हीं उन्हे अपने पुत्री के ऋण से पहले मुक्त कर तत्पश्चात मातृभूमि के ऋण से मुक्त करने का ताना-बाना बुना हो,
बल्लू जी ने जिस लाडनू के एक बनिया से कुछ कर्ज़ लिया था, पुत्री के विवाह के लिए ,इसके बदले में उन्होंने अपने मूंछ का बाल गिरवी जो रखा था ,वो जीते जी वह छुड़ा न सके, परंतु उनकी छ: पीढी बाद मैं उनके वंशज हरसोलाव के ठाकुर सूरतसिंह जी ने छुड़ा कर उनका विधि विधान के साथ दाह संस्कार करवाया, और सारे बल्लुदासोत चंपावत इकट्ठे हुए ,और सारे शौक के दस्तूर पूरे किए, इस तरह एक राजपूत वीर को दो बार वीरगति प्राप्त हुई और तीन बार दाह संस्कार हुआ, जो हिंदुस्तान के इतिहास में उनके अलावा कहीं नहीं मिलता,
( काश कोई इस तरह की सच्ची घटनाओं पर फिल्में बनाते तो लोगों को सही इतिहास का पता चलता ,आज कुछ लोग वामपंथी जो इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहे हैं क्योंकि इन वामपंथियों को क्षत्रिय इतिहास से जलन है, किसी भी तरह किसी भी हद तक जाकर क्षत्रिय को नीचा दिखाना चाहते हैं ,ताकि उनका मनोबल तोड़ा जाए इनको तोड़ा जाए और कुछ हद तक यह यह लोग कामयाब हुए।
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